हम दो में ही जीते हैं प्रेम करते हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं!
हम दो में ही जीते हैं प्रेम करते हैं किसी को; लेकिन जिसे प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा भी करते हैं कहेंगे, कैसी बात कहता हूं मैं!
लेकिन सारी मनुष्य-जाति का अनुभव यह है और अब तो मनसशास्त्री इस अनुभव को बहुत प्रगाढ़ रूप से स्वीकार कर लिए हैं कि जिसे हम प्रेम करते हैं, उसे ही घृणा करते हैं द्वंद्व है हमारा मन जिसे हम चाहते हैं, उसे ही हम नहीं भी चाहते हैं जिससे हम आकर्षित होते हैं, उसी से हम विकर्षित भी होते हैं, जिससे हम मित्रता बनाते हैं, उससे हम शत्रुता भी पालते हैं ये दोनों हम एक साथ करते हैं
थोड़ा किसी एकाध घटना में उतरकर देखेंगे, तो खयाल में आ जाएगा जिससे आप प्रेम करते हैं, उससे आप चौबीस घंटे प्रेम कर पाते हैं? नहीं कर पाते घंटेभर प्रेम करते हैं, तो घंटेभर घृणा करते हैं सुबह प्रेम करते हैं, तो सांझ घृणा करते हैं सांझ लड़ते हैं, तो सुबह फिर दोस्ती कायम करते हैं पूरे समय घृणा और प्रेम का धूप-छांव की तरह खेल चलता है असल में शत्रु और मित्र दो चीजें नहीं हैं
एक ही साथ घटित होती हैं आप किसी आदमी को बिना मित्र बनाए शत्रु बना सकते हैं? बहुत मुश्किल है अब तक तो नहीं हो सका पृथ्वी पर यह बिना मित्र बनाए किसी को शत्रु बनाया जा सकता है? असंभव है शत्रु बनाने के लिए भी मित्र की सीढ़ी से गुजरना ही पड़ता है शत्रु बनाने के लिए भी पहले मित्र ही बनाना पड़ता है तो ऐसा भी समझ सकते हैं कि जिसको मित्र बनाया, अब उसके शत्रु बनने की संभावना घनीभूत हो गई
गीता दर्शन–(प्रवचन–026)
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